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  1. Zeitschriftenartikel

Auswahl der wissenschaftlichen Literatur zum Thema „नेपाली Nepali“

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Zeitschriftenartikel zum Thema "नेपाली Nepali"

1

क ुमारी, स. ुषमा. „सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं की भूमिका : बिहार के विशेष संदर्भ म“. Mind and Society 8, Nr. 03-04 (30.03.2019): 53–59. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20199.

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1914 इ र्. में गाँधीजी क े भारत आगमन क े समय प ूव र् में समाज सुधारकों द्वारा किये गये सुधारों क े परिणाम स्वरूप शिक्षित परिवारों में स्त्रियों की स्थिति सुधरन े लगी थी और महिलाओं क े प ्रति सामाजिक एव ं शैक्षणिक मान्यताओं में परिवत र्न की प ्रक्रिया चल रही थी ल ेकिन उसे स्वराज आंदोलन क े कार्यक्रमों द्वारा साव र्जानिक सेवा क े लिए घर से बाहर लान े तथा कुरीतियों से सावधान कर उसक े सद ्गुणों को व्यापक बनान े और आर्थिक स्वावल ंबन, साहस एव ं उत्तरदायित्व क े साथ ऊँचा उठान े का सतत ् प ्रयास वास्तव में गाँधीजी न े ही किया। स्वत ंत्रता आंदोलन में ‘भारतीय नारी’ का योगदान मुख्यतया 1920 क े बाद से अधिक मुखर हुआ। गाँधीजी क े न ेत ृत्व में भारतीय स्वत ंत्रता संग्राम, जन आंदोलन क े रूप में प ्रकट हुआ। बिहार में भी आंदोलन में गति आइ र्ं। 1930 क े सविनय अवज्ञा आंदोलन में गाँधीजी क े आह्वान पर महिलाएॅ राजनीति में खुलकर भाग ल ेन े लगी।
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2

चा ैहान, ज. ुवान सि ंह. „प ्रवासी जनजातीय श्रमिका ें की प ्रवास स्थल पर काय र् एव ं दशाआ ें का समाज शास्त्रीय अध्ययन“. Mind and Society 8, Nr. 03-04 (28.03.2019): 38–44. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20196.

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भारत म ें प ्रवास की प ्रक्रिया काफी लम्ब े समय स े किसी न किसी व्यवसाय या रा ेजगार की प ्राप्ति ह ेत ु गतिशील रही ह ै आ ैर यह प ्रक्रिया आज भी ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाय म ें गतिशील दिखाइ र् द े रही ं ह ै। प ्रवास की इस गतिशीलता का े रा ेकन े क े लिए क ेन्द ्र तथा राज्य सरकार न े मनर ेगा क े तहत ् प ्रधानम ंत्री सड ़क या ेजना, स्वण र् ग ्राम स्वरा ेजगार या ेजना ज ैसी सरकारी या ेजनाआ े ं का े लाग ू किया ह ै, ल ेकिन फिर ग ्रामीण जनजातीय ला ेगा े ं क े आथि र्क विकास म े ं उसका असर नही ं दिखाइ र् द े रहा ह ै। ग ्रामीण जनजातीय सम ुदाया ें म े ं निवास करन े वाल े अधिका ंश अशिक्षित हा ेन े क े कारण शासकीय या ेजनाआ ें का लाभ नही ं ल े पा रह े ह ै। प ्रवास करन े का प ्रम ुख कारण अपन े म ूल स्थान पर रा ेजगार व आय क े स ंसाधन न हा ेन े व क ृषि आय म ें कमी क े करण द ूसर े स्थान या शहरी क्ष ेत्रा ें की आ ेर रा ेजगार की तलाश म ें प ्रवास कर रह े ह ैं। ग ्रामीण जनजातीय परिवारा ें स े हा ेन े वाल े प ्रवास की प ्रक्रिया का े द ेखत े ह ुए शा ेधाथी र् न े अपन े शा ेध अध्ययन ह ेत ु अलीराजप ुर जिल े का चयन किया ह ै, जिस परिवार स े सदस्य प ्रवासी मजद ूरी जात े रहत े या जा रह े ह ै ं। इस प ्रकार स े ग ्रामीण जनजातीय परिवारा े ं स े प ्रवासी मजद ूरी करन े वाल े 300 जनजातीय परिवारा े ं का चयन सा ैद ्द ेश्यप ूण र् निदश र्न पद्धति द्वारा किया गया ह ै जिसम ें यह पाया गया कि 14.3 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि ठ ेक ेदार क े द्वारा रहन े की व्यवस्था न करन े क े कारण किराय े स े रहन े वाल े पाय े गय े, 53.7 प ्रतिशत उत्तरदाताआ ें का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर रहन े ह ेत ु ठ ेक ेदार द्वारा कच्च े भवन व झा ेपड ़ी की व्यवस्था की जाती ह ै जिसम ें पानी, जलाऊ लकड ़ी स ुविध् ाए ं रहती ह ै तथा 32.0 प ्रतिशत उत्तरदाताआ े ं का कहना ह ै कि प ्रवास स्थल पर ठ ेक ेदार द्वारा रहन े की स ुविधाए ं उपलब्ध नही ं कराइ र् जाती ह ै जिसक े कारण उन्ह ें रा ेजी-रा ेटी व दिहाड ़ी मजद ूरी पान े ह ेत ु शहरा ें म ें सड ़क किनार े ता े कही ं सम ुद ्र किनारा ें पर मलिन बस्ती क े रूप म े ं स्वय ं झा ेपडि ़या बनाकर बिना बिजली, पानी, लकड ़ी तथा शा ैचालय आदि ब ुनियादी स ुविधाआ े ं स े व ंचित जीवन-यापन कर रह े ह ै ं। अस ंगठित क्ष ेत्र म ें मजद ूरी काय र् करन े वाल े प ्रवासी श्रमिका ें का े प ्रवास स्थल पर श्रम का ूनन आ ैर प ्रवासी अन्तरा र्ज्यीय अधि् ानियमा ें स े व ंचित रखा जा रहा ह ै।
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3

मिश्रा, आ. ंनद म. ुर्ति, प्रीति मिश्रा und शारदा द ेवा ंगन. „भतरा जनजाति में जन्म संस्कार का मानवशास्त्रीय अध्ययन“. Mind and Society 9, Nr. 03-04 (29.03.2020): 39–43. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20215.

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स ंस्कार शब्द का अर्थ ह ै श ुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर का े त्याग कर द ुसर े शरीर म ें जन्म ल ेता है ता े उसक े प ुर्व जन्म क े प ्रभाव उसक े साथ जात े ह ैं। स ंस्कारा े क े दा े रूप हा ेत े ह ैं - एक आंतरिक रूप आ ैर द ूसरा बाह्य रूप। बाह ्य रूप का नाम रीतिरिवाज ह ै जा े आंतरिक रूप की रक्षा करता है। स ंस्कार का अभिप्राय उन धार्मि क क ृत्या ें स े ह ै जा े किसी व्यक्ति का े अपन े सम ुदाय का प ुर्ण रूप स े योग्य सदस्य बनान े क े उदद ्ेश्य स े उसक े शरीर मन मस्तिष्क का े पवित्र करन े क े लिए किए जात े ह ै। सभी समाज क े अपन े विश ेष रीतिविाज हा ेत े ह ै, जिसक े कारण इनकी अपनी विश ेष पहचान ह ै, कि ंत ु वर्त मान क े आध ुनिक य ुग स े र्कोइ भी समाज अछ ुता नही ं ह ै जिसक े कारण उनके रीतिरिवाजों क े म ुल स्वरूप म ें कही ं न कहीं परिवर्त न अवश्य ह ुआ ह ै। वर्त मान अध् ययन का उदद े्श्य भतरा जनजाति क े जन्म स ंस्कार का व ृहद अध्ययन करना है। वर्त मान अध्ययन क े लिए बस्तर जिल े क े 4 ग ्रामा ें का चयन कर द ैव निर्द शन विधि क े माध्यम स े प ्रतिष्ठित व्यतियों का चयन कर सम ुह चर्चा क े माध्यम से तथ्यों का स ंकलन किया गया ह ै। प ्रस्त ुत अध्ययन स े यह निष्कर्ष निकला कि भतरा जनजाति अपन े संस्कारों क े प ्रति अति स ंवेदनशील ह ै कि ंत ु उनक े रीतिरिवाजा ें म ें आध ुनिकीकरण का प ्रभाव हा ेने लगा ह ै। भतरा जनजाति को चाहिए की आन े वाली पीढ ़ी को अपन े स ंस्कारा ें क े महत्व का े समझान े का प ्रयास कर ें ।
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4

राय, अजय क. ुमार. „जनसंख्या दबाव से आदिवासी क्षेत्रों का बदलता पारिस्थितिकी तंत्र एवं प्रभाव (बैतूल-छिन्दवाड़ा पठार के विशेष सन्दर्भ में)“. Mind and Society 9, Nr. 03-04 (11.03.2020): 31–38. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20214.

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जनजातीय पारिस्थितिकी म े ं वन, क ृषि म े ं स ंलग्नता, आवास, रहन-सहन का स्तर, स्वास्थ्य स ुविधाआ े ं का अध्ययन आवश्यक हा ेता ह ै। सामान्यतः धरातलीय पारिस्थ्तििकी का े वनस्पति आवरण क े स ंदर्भ म ें परिभाषित किया जाता ह ै। अध्ययना ें स े यह स्पष्ट ह ैं कि यदि किसी स्थान पर जनस ंख्या अधिक ह ैं आ ैर यदि उसकी व ृद्धि की गति भी तीव ्र ह ै ं ता े वहा ं पर अवस्थानात्मक स ुविधाआ ंे क े निर्मा ण क े परिणास्वरूप तथा विकासात्मक गतिविधिया ें क े कारण विद्यमान स ंसाधना ें पर दबाव निर ंतर बढ ़ता ही जाता ह ैं, प ्रस्त ुत अध् ययन म े ं शा ेधार्थी आदिवासी एव ं वन बाह ुल्य क्ष ेत्र ब ैत ूल-छि ंदवाड ़ा पठार म ें जनस ंख्या दबाव स े आदिवासी क्ष ेत्रा ें का बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र क े कारणा ें एव ं प ्रभावा ें का े जानन े का प ्रयास किया ह ै। अध्ययन ह ेत ु ब ैत ूल-छिन्दवाड ़ा पठार का चयन किया गया ह ै जा े कि आदिवासी बाह ुल्य व वनीय प ्रधान क्ष ेत्र ह ै। अध्ययन क े प ्रम ुख उद ्द ेश्य ह ै- अध्ययन क्ष ेत्र म ें जनस ंख्या व ृद्वि की प ्रव ृत्ति का आ ॅकलन एव वनीय स ंसाधना ें क े दा ेहन क े परिणामस्वरूप बदलता पारिस्थितिकी त ंत्र एव ं आदिवासी स ंस्क ृति पर पड ़न े वाल े प ्रभाव का अध्ययन करना । वर्षा क े जल का नियमन, ताप, उष्णता तथा वाष्पा ेत्सर्ज न एव ं हवा क े व ेग आदि का े निय ंत्रित करन े म ें वन्य महत्वप ूर्ण भ ूमिका निभात े ह ै। वना ें क े विनाश स े ए ेसा द ुश्चक्र ्र चलता ह ै कि धीर े-धीर े वनस्पति आच्छादन समाप्त हा ेता जाता ह ै, म ृदा क्षय बढता ह ै आ ैर अन्ततः भा ैतिक पर्या वरण एव ं जलवाय ु म ें परिवर्त न हा ेत े ह ै। इस समग ्र परिप ्रेक्ष्य म ें वना ें की बह ुआयामी भ ूमिका का े द ेखत े ह ुए वन विनाश का े रा ेकन े की दिशा म ें ध्यान दिया जाना चाहिए।
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पाण्ड ेय, ऋषिराज. „रायप ुर जिल े म ें जन च ेतना का विकास“. Mind and Society 8, Nr. 03-04 (30.03.2019): 50–53. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-83-4-20198.

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भारत म ें अ ंग ्रेजा ें क े विरूद्ध स्वत ंत्रता स ंग ्राम क े रूप म ें सन ् 1857 म ें सव र्प ्रथम प ्रबल क्रा ंति ह ुइ र्। छत्तीसगढ ़ अ ंचल क े रायप ुर जिल े क े सा ेनाखान जमीदारा ें क े जमी ंदार नारायण सि ंह द्वारा क्रा ंति का बिग ुल फ ूंका गया, उनकी फा ंसी क े बाद स ैन्य विद ्रा ेह का न ेतष्त्व हन ुमान सि ंह द्वारा किया गया। सन ् 1885 म ें का ंग ्रेस की स्थापना ह ुइ र्, अ ंचल म ें राष्ट ्रीय च ेतना क े विकास म ें इसका भरप ूर या ेगदान रहा। साथ ही आय र् समाज, मालिनी रीडस र् क्लब, छत्तीसगढ ़ बाल समाज, कवि समाज की स्थापना जनच ेतना क े विकास की दष्ष्टि स े उल्ल ेखनीय ह ै। प ं. स ुन्दरलाल शमा र् न े सन्मित्र मण्डल की स्थापना कर स्वद ेशी की अलख जगाइ र्। माधवरा सप ्रे न े छत्तीसगढ ़ मित्र नामक मासिक पत्र निकाला तथा हिन्दी म ें क ेसरी नामक समाचार पत्र आर ंभ कर जनच ेतना क े विकास म ें या ेगदान दिया।
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साह ू, प. ्रवीण क. ुमार. „संत कबीर की पर्यावरणीय चेतना“. Mind and Society 9, Nr. 03-04 (30.03.2020): 57–59. http://dx.doi.org/10.56011/mind-mri-93-4-20219.

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स ंत कबीर भक्तिकालीन निर्ग ुण काव्यधारा अन्तर्ग त ज्ञानमार्गी शाखा क े प ्रवर्त क कवि मान े जात े ह ैं। उनकी वाणिया ें म ें जीवन म ूल्या ें की शाश्वत अभिव्यक्ति एव ं मानवतावाद की प ्रतिष्ठा र्ह ुइ ह ै। कबीर की ‘आ ंखन द ेखी’ स े क ुछ भी अछ ूता नही ं रहा ह ै। अपन े समय की प ्रत्य ेक विस ंगतिया ें पर उनकी स ूक्ष्म निरीक्षणी द ृष्टि अवश्य पड ़ी ह ै। ए ेस े म ें पर्या वरण स ंब ंधी समस्याआ ें की आ ेर उनका ध्यान नही गया हा े, यह स ंभव ही नही ह ै। कबीर क े काव्य म ें प ्रक ृति क े अन ेक उपादान उनकी कथन की प ुष्टि आ ैर उनक े विचारा ें का े प ्रमाणित करत े ह ुए परिलक्षित हा ेत े ह ैं। पर्या वरणीय जागरूकता आ ैर स ुरक्षा की द ृष्टि म ें कबीर का महत्त्वप ूर्ण या ेगदान यह ह ै कि उन्हा ेंन े सम ूची मानव जाति का े प ्रक ृति क े द्वारा किए गय े उपकारा ें क े बदल े म ें क ृतज्ञता व्यक्त करन े की शिक्षा दी ह ै। उनक े काव्य म ें कही ं व ृक्षा ें की पत्तिया ँ आ ैर फ ूल स ंसार की नश्वरता आ ैर मन ुष्य जीवन की क्षणिकता का बा ेध कराती ह ै ता े कही ं जल का आश्रय ग ्रहण कर परमात्मा स ंब ंधी रहस्यवादी भावनाआ ें का े उद ्घाटित करती ह ै। इस प ्रकार कह सकत े ह ैं कि कबीर की वाणिया ें म ें प ्रक ृति क े विविध रूपा ें की अभिव्यक्ति द ृष्टा ंता ें क े रूप म ें र्ह ुइ ह ै। इसी स े स ंत कबीर की पर्या वरणीय जागरूकता स्वतः सिद्ध हा े जाती ह ै।
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